ज़िन्दगी ने तो बतला दिया था
की क्या बुरा है और क्या भला है
पर क्या करूं कमबख्त दिल का अपने
ये न माना खुद अपनी ही राह चला है
दूजो से क्या कोई शिकवा शिकायत करूं
मुझे तो मेरी रूह ने ही फिर छला है
धूप और आग से सदा रखी दूरियां
मगर अंधेरो में भी दिल ये जला है
गिरकर सम्भलना तो दस्तूर है यारों
क्यूँ मेरा दिल ही टूटा जब भी संभला है
Wednesday, April 14, 2010
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