इस कदर ग्लोबल वार्मिंग का हो रहा है असर, आँख से धुआं धुआं निकल रहा है आजकल
उधर ग्लासिएर्स कि बर्फ है पिघल रही, इधर मेरा दीवाना दिल जल रहा है आजकल
उधर ओजोने कि लेएर कि हो रही है भरी छाती, इधर ज़ेहन में यादों कि परत परत उधर रही
उधर सागरों के जल में तीव्र वृद्धी हो रही है, इधर सूखे एहसासों कि बेल मुरझा के मर रही.
Monday, October 11, 2010
ग्लोबल वार्मिंग
Friday, October 8, 2010
हकीक़त
पलकों कि कोरों पे तैरते कई ख़्वाब
हकीक़त कि चट्टान से जब टकराया सैलाब
हलचल उठी और सब ढह सा गया
आँखों से रिसता रह गया बस आब ...बस आब
एहसास
कुछ ख्वाहिशे इतनी ऊँची उठी, धुएं कि तरह हवा में खो गयी
कुछ ख़्वाब भी इतने रहे अनदिखे, आँखें जगी उम्मीदें सो गयी
कुछ एहसास इतने रहे अनछुए से, साँसें जमीं धड़कन बढ़ी और खता हो गयी
कुछ दर्द दिल में यूँ पिघलने लगा, आँखें मुंदी और पलकें रो गयी
कुछ याद ज़ेहन में ऐसे जगी, रूह की गहराईयों में उतर सी गयी
हर लम्हा हर पल एहसास साथ चलते रहे, पूरी दास्ताँ नज़रों के आगे गुजर सी गयी
अहसास-ए-तन्हाई
ख़्वाब सारे टूटकर बिखरे कहीं, नींद भी इन आँखों में अब बसती नहीं
हर सांस में बस खालीपन है भर रहा, अहसास-ए-तन्हाई मुझे डसती रही
किससे भला हम कह दें अपने दिल का हाल, कौन है इस दिल के अब इतना करीब
ख़्वाब में तो जन्नतें है सजा रखी हमने, फिर दिल का कोना कोना क्यूँ इतना गरीब !
पिघलता दर्द
ख्वाहिशों का है धुआं उड़ गया, यादों कि कुछ राख बाकी है
उम्मीदें पतझड़ में बिखर गयी, अरमानों कि बस शाख बाकी है
ख्वाबों का सूखा सा पद गया, आँखों में बस सेहरा बसा है
दर्द पिघलता दिल दरिया में, सिर्फ़ ग़मों का कुहरा बाकी है
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