आज बगल में यादों की एक खाट पड़ी है
न जाने क्यूँ नींद इन आँखों से दूर खड़ी है
खुशियों और गम की कसमसाहट सी हो रही है
शान्त से सोये इस दिल में क्यूँ बेचैनी बड़ी है
" कैसी यादें हैं मेरे ज़ेहन में ख़ल रही हैं
कैसी बेचैनी की आग सी साँसों में जल रही हैं
कैसी ख्वाहिशें इन आँखों में पल रही हैं
कैसी शाम ये इस दिल की यूँही ढल रही है
कैसी शाम है ये राह की परछाई संग न चल रही है
कैसी मार है वक़्त की खुद रूह ही अब छल रही है
क्यूँ खुशियों के दौर अब नहीं मिलते हैं
क्यूँ उम्मीदों के फूल अब नहीं खिलते हैं
क्यूँ आँखों के दर्द अब नहीं पिघलते हैं
क्यूँ पलको में कैद ख़्वाब अब नहीं मचलते हैं
क्यूँ नज़रों में अपनापन सा अब दिखता नहीं
क्यूँ कोई अब अमन चैन पे कुछ लिखता नहीं
क्यूँ बिना मतलब के कोई किसी से मिलता नहीं
क्यूँ कोई ज़ख्म दूसरों के अब सिलता नहीं
क्यूँ दूजे की मदद को यह हाथ हिलाते नहीं
क्यूँ अर्थी को भी अब कंधे मिलते नहीं
क्यूँ खामोश हो जाती है जुबां सच कहने में
क्यूँ बेबस से हो जाते हैं हम अन्याय सहने में