Friday, April 16, 2010

ज़िन्दगी है   चार   दिन   की  ,हर   ख़ुशी   है  चार   दिन   की 
खुशियों   की   ये   बहती   नदी   है  ,पी   लो  जितना  पी   सकते   हो 
चाँद   लम्हें   है   यहाँ   बस  ,जी   लो   जितना   जी   सकते   हो 
इन  राहों  में  ज़रा   चलना  संभल  कर , ये  दिल ,यहाँ  पे  ज़र्रे  ज़र्रे  में  छिपे  तूफान  बैठे  हैं 
मैं  माथा  भी  टेकूं  तो  तो  कहाँ  टेकुं  बता  मुझको ,यहाँ  तो  हर  गली  में  कितने  ही  भगवान  बैठे  हैं 
भला  बाटूँ  किससे  मैं  अपने  हालेदिल  की  उलझन , यहाँ  तो  हर  दिलों  में  टूटे  से  अरमां  बैठे  हैं 
मदद  के  वास्ते  मैं  आसरा  रखूँ  भी  तो  किसका ,यहाँ  हर  सख्श  के  ज़ेहन  में  छिपे  शैतान  बैठे  हैं 
किसी  को  देखकर  ये  दिल  न  करना  उस  पे  तू  यकीं ,यहाँ  हर  चहरे  के  पीछे  कई  हैवान  बैठे  हैं 
हमारी  बातों  का  तो  जी  भर  के  लुत्फ़  लेते  थे  सब ,अब  हमने  की  फर्म्हिश  तो  बन  बेजुबान  बैठे  हैं 
कभी  किसी  मोड़  पे  ठोकर  से  बहा  उनके  खून  का  कतरा ,हम  उन्ही  राहों  में  आज  भी  लहूलुहान  बैठे  हैं 
नज़र  जी  भर  के  भी  देखूं  तो  देखूं  भला  कैसे ,मेरी  इन  झुकी  नज़रों  में  तो  एहसान  बैठे  हैं 
हमारा  उनका  क्या  रिश्ता   भला  हम  कैसे  बतला  दे ,अकेले  में  तो  मिलते  हैं  भीड़  में  अनजान  बैठे  हैं 
जब  चले  थे  साथ  चले  थे
हाथों  में  डाले  हाथ  चले  थे
न  जाने  कैसा  मोड़  था  आया ,बिन  बताये  तुम  मुड़  गए
आँखों  में  पलकों  के  नीचे ,थे  कितने  सपने  बुने  थे ,आँख  खुली  और  सब  उड़ गए
खुशिया  थी  चारों  ओर , फिर  ग़मों  ने  लगाया  जोर
ना  जाने  किन  लम्हों  में  जीत  गए  गम ,गहरी उदासी  से  हम  जुड़  गए
सुनहरा  सा  जो  एक  ख़्वाब  था , सारे  सवालों  का  छिपा  जवाब  था
यादों  का  था  कारवां  सा , ज़ेहन  में  गहरा  रवां  सा
थोडा  जला,  धीरे  धीरे  पिघला , फिर  उड़  गया  वो  धुआं  सा
ना  जाने  कितने  रंग  दिखा  गया , कितने  से  स्वाद  वो  चखा  गया 
इक  पल  में  साड़ी  खुशियाँ  समेट  ली ,कितने  नए  अरमां  जगा  गया
लम्हा  वो  आया  यूँ  , इस  दिल  को  भाया यूँ
नयी  राह  और  दिशा  देके , ज़िन्दगी  में  छाया  यूँ
दिल  के  एक  घरौंदे  में , यादों  के  दीप  जलाये  हैं
बीते  पल  की  आवाज़े  सुन  सुन , तन्हाई  के  पल  बिताये  हैं
गुज़ारे  वक़्त  को  यूँ  जीते  है , जैसे  रीता  हो  आज  में  वो
आने  वाला  कल  बेहतर  हो ,आस  यही  बस  लगाये  हैं
खुशियों  को  पलकों  में  समेटे ,सुनहरे  से  ख़्वाब  सजाये  हैं

Wednesday, April 14, 2010

haal-e-dil

ज़िन्दगी  ने  तो  बतला  दिया  था
की  क्या  बुरा  है  और  क्या  भला  है
पर  क्या  करूं  कमबख्त  दिल  का  अपने
ये  न  माना  खुद  अपनी  ही  राह  चला  है
दूजो  से  क्या  कोई  शिकवा  शिकायत  करूं
मुझे  तो  मेरी  रूह  ने  ही  फिर  छला  है
धूप  और  आग  से  सदा रखी दूरियां
मगर   अंधेरो  में  भी   दिल  ये  जला  है
गिरकर  सम्भलना तो  दस्तूर  है  यारों
क्यूँ  मेरा  दिल  ही  टूटा  जब  भी  संभला  है