Thursday, May 6, 2010


उसकी  आँखों  में  मुझे  दिखता  अब  वो  प्यार  नहीं
क्यूँ  है  लगता  ये उसे  मुझ  पे  अब  ऐतबार  नहीं
हर  राह साथ चलने  के  किये   थे  वादे   हमने
ऐसे   भूला   की   उसे   याद   भी   अब  वो  करार   नहीं
उसका  साथ   देने   को  नया  कारवां  मिल  गया  होगा
ऐसा  लगता  है  उसे  मेरे साथ  की  अब  दरकार  नहीं
साथ हैं गुज़ारे हमने इतने खुशनुमां  लम्हें
कैसे ये दिल भला कह दे कि अब  वो मेरा यार नहीं
हर  साँस  में  तेरी  खुशबू  महसूस  करता  हूँ  मैं
गर  तू  कहे  इक बार  तो साँस  लेना  भी  छोड़  दूं
तेरी  नज़र  के  ऐतबार  पे  काट  दी  ये  ज़िन्दगी
तू  नज़रें  तो  फेर  ले  अपनी  आंखें  फोड़  दूं
यूँ  तो  दिल  के  बचपने  से  तंग  हैं  हम  बहुत
पर  ये  इतना  भी  नादाँ  नहीं  की  इसे  यूँ  तोड़  दूं
तेरे  रास्तों  पे  कदम  खुद  बा  खुद  मुड़ते  रहे
ना  हो  तुझको  गवारा  तो  अपनी  हर  राह  मोड़ दूं
इश्क़  किया  है  तुझसे  पर  बदले  में  ना  कुछ  माँगा
तू  माँग  के  तो  देख  तेरे  लिए  ये  इश्क़  भी मैं  छोड़  दूं

एक  कश्ती  और  हाथ  में  पतवार  हो
फिर  नहीं  डर  कैसी  भी  मझधार  हो
चीर  देंगे  हम  समंदर  का  भी  सीना
चाहे  क्यूँ  ना  प्रलय  की  ही  बौछार  हो

नाप  लेंगे  हम  समंदर की भी  गहराई
पर  तेरी  आँखों  की  न  कुछ  थाह  हमको
एक  नज़र  जी  भर  के  तुझको  देख  लूं  बस
फिर  नहीं  कोई  किसी  से  भी  चाह  हमको
तेरे  इश्क़  में  खुद  को  ही  हम  भूले  हैं  बैठे
फिर  भला  कैसे  किसी  की  हो  परवाह  हमको
तेरे  मकाँ  के  पास  से  जो  है  गुजरती
बस  नज़र  आती  वही है  बस  राह  हमको
यूँ  तो  खुशियों  के भी  पल  आये बहुत  थे
पर  क्यूँ  सुनाई  देती  है  बस  कराह  हमको
तेरे  दिल  में  कुछ  भी  है  नहीं  मेरे  लिए
जानता  हूँ  फिर भी  क्यूँ  है  ये  आह  हमको
तूने  अपने  दिल  में  ही  न  बसाया  मुझको
अब  भला  मिलेगी  कहाँ  कोई  पनाह  हमको
हमने  जिसको  भी  है  चाहा  आज तक वो  ना  मिला
ऐसी  फूटी  तकदीर  की क्यूँ  है  डाह  हमको
मेरी  तकदीर  में  तेरी  कमी  ही  लिखी  है
वक़्त  ने  हर  लम्हा  दी  ये  सलाह  हमको
दिल को था समझाया कितना  पर ये माना ना 
था नसीब में ये क्यूँ लिखा ये गुनाह हमको 



ये  जो  नयन  हैं  तेरे , कितनों  के  चैन  चुराए  हैं
इन  की  गहराइओ में  तूने , सारे  दिन  रैन  छिपाए  हैं
कभी   ये  चमकते  से  लगते  हैं ,तब  हर  ख़ुशी  इनमे  दिखती  है
कभी  इनके  सूनेपन  में  क्यूँ  मुझको , एक  बेबसी  सी  झलकती  है
ये  तेरी  पलकों  में  छिपी  आंखें , जैसे  दिल  का  ये  कोई  रास्ता  हों
कभी  ठहरी  सी ,कभी  मचलती ,
खामोशियों  में  बयाँ  करती  दास्ताँ  हों
जागी  जागी  सी  ये , सोयी  सोयी  सी  ये ,
हर  लम्हा  हर  पल  खोयी  खोयी  सी  ये
जाने  क्या  ढूढती रहती  हैं  जाने  क्या  पूछती  रहती  हैं
कितने  सवाल  छिपे  हैं  इन   पलकों  की  कालिमा  के  पीछे
कितने  राज़  दबे  हैं  इस  गहरी  सी   लालिमा  के  पीछे
न  सवालों  का  कोई  अंत  है  न  जवाबो  की  कोई  पहल
क्यूँ  लगता  है  तेरी  नज़र  पूछती  रहती   है कुछ  हर  पल