Saturday, February 12, 2011

सुकूं


आवारा  से  बहके  कदम  कब  कहाँ  मुड़  जाये, खबर  कहाँ 
बंद  मुट्ठी  में  है  धुवां  भरा  कब  उड़  जाये, फिकर  कहाँ 
पतझर में  बिखरते  पत्तों  का  ढेर  समेटना  क्या 
फिर  हवा  के  झोंकों  में  ना  बिखरेगा, ये  शुकर  कहाँ 
इतनी  बातें  करती  हैं  ये  राहें  आजकल  मुझसे 
छोड़  इन्हें  किसी  मंज़िल  से  जुड़  जाये  ऐसी  कोई  ठहर  कहाँ 
ख्वाब  में  डूबी  ये  खुशनुमा  बेख़ौफ़  ज़िन्दगी,
ख़्वाब  यूँ  तोड़  के  उठ  जाएँ  ऐसी  कोई  हसीन  पहर  कहाँ 

राह  चलते  हुए  इतनी  राहत  का  गुमाँ  होता  है 
मंजिलो  को  पा के   भी  ऐसा  सुकूं  कहाँ  होता  है 

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