Wednesday, April 14, 2010

haal-e-dil

ज़िन्दगी  ने  तो  बतला  दिया  था
की  क्या  बुरा  है  और  क्या  भला  है
पर  क्या  करूं  कमबख्त  दिल  का  अपने
ये  न  माना  खुद  अपनी  ही  राह  चला  है
दूजो  से  क्या  कोई  शिकवा  शिकायत  करूं
मुझे  तो  मेरी  रूह  ने  ही  फिर  छला  है
धूप  और  आग  से  सदा रखी दूरियां
मगर   अंधेरो  में  भी   दिल  ये  जला  है
गिरकर  सम्भलना तो  दस्तूर  है  यारों
क्यूँ  मेरा  दिल  ही  टूटा  जब  भी  संभला  है 

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